यहां एक महीने बाद क्यों मनाई जाती हैं ये अनोखी दीपावली! जानिए इसी रोचक कहानी

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Budhi Diwali in Uttarakhand
Budhi Diwali in Uttarakhand

Uttarakhand Devbhoomi desk: हिन्दु धर्म का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण त्योहार दीपावली का पर्व हर साल कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष (Budhi Diwali in Uttarakhand) की अमावस्या को मनाया जाता है। इस साल पूरे देशभर में दीपावली का त्योहार 24 अक्टूबर को बड़े ही धूमधाम से मनाया जा चुका है। लेकिन क्या आप जानते हैं हमारे भारत देश में कुछ इलाके ऐसे भी है जहां देशभर में मनाई जाने वाली दिवाली के एक महीने बाद यहाँ फिर से दिवाली मनाई जाती है।

देवभूमि कहे जाने वाले राज्य उत्तराखंड में इस दीपावली को लोग बूढ़ी दिवाली (Budhi Diwali in Uttarakhand) कहते हैं। यह पर्व सिर्फ उत्तराखंड में ही नहीं बल्कि हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाकों मे भी मनाया जाता है। ये अनोखी दीपावली उत्तराखंड और हिमाचल राज्य के अलग-अलग स्थानों में खास तरीकों से मनाया जाता है। यहाँ तक कि इस मौके पर कई कार्यकर्मो का आयोजन भी किया जाता है।

अनूठी संस्कृति और परंपराओं के लिए मशहूर टिहरी जिले के आदिवासी क्षेत्र जौनसार बावर में तीन से पांच दिवसीय जौनसारी दिवाली या बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा पूरे देशभर में कायम है। इस पर्व की खास बात यह है कि इसमें क्षेत्र की लोक संस्कृति (Budhi Diwali in Uttarakhand) की शानदार झलक देखने को मिलती है।

साथ ही पांच दिनों तक यहाँ इको फ्रेंडली दिवाली मनाई जाती है। इस उत्सव में पटाखों का शोर नहीं बल्कि भीमल की लकड़ी से बनाई गई मशालों को जलाकर खुशी मनाते हैं। इस मशाल को स्थानी भाषा में होला कहा जाता है। इसके अलावा ग्रामीण महिला-पुरुष सामूहिक नृत्य के माध्यम से लोक संस्कृति को प्रदर्शित भी करते हैं।

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Budhi Diwali in Uttarakhand: क्या है इस पर्व का महत्व?

बताया जाता है कि उस समय टिहरी जिले में राजशाही तंत्र था। और गढ़वाल के प्रिय नेता बीर भड़ माधो सिंह भण्डारी की झूठी शिकायत टिहरी नरेश से किसी ने कर दी थी। जिस पर उन्हें दरबार में तत्काल हाजिर होने का आदेश दिया गया। उस दिन दिवाली थी और अपने प्रिय नेता के चले जाने पर यहां के लोगों ने दिवाली नही मनाई।

लेकिन दीपावली के ठीक एक माह बाद अपने प्रिय नेता के लौटने पर इन गांवों में दीपावली मनाई गई। तब से लेकर आज तक ये प्रथा चली आ रही है। जब पूरे देश मे दीपावली का त्योहार मनाया जाता है तो इन गांवों में दीपावली नहीं मनाई जाती है। एक मान्यता यह भी है कि इन क्षेत्रों (Budhi Diwali in Uttarakhand) में भगवान राम के अयोध्या पहुंचने की खबर एक महीने देरी से मिली थी।

इस कारण इस क्षेत्र के लोग एक महीना बाद दिवाली की परंपरा का निर्वाहन करते हैं। और इन लोगों ने भगवान राम के अयोध्या वापस लौटने की खुशी जाहिर करते हुए देवदार और चीड़ की लकड़ियों की मशाल बनाकर रोशनी की। इस दौरान खूब नाच-गाना भी किया। तब से इन इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा शुरू हो गई।

यह दिवाली की अगली अमावस्या पर बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। यहां बलिराज (Budhi Diwali in Uttarakhand) के दहन की प्रथा भी है। कौरव वंशज के लोग अमावस्या की आधी रात में एक भव्य जलूस निकालते है और बाद में गांव के सामूहिक स्थल पर एकत्रित होकर घास, फूस तथा मक्की के टांडे में अग्नि देकर बलिराज दहन की परंपरा निभाते हैं।

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कई क्षेत्रों में इस दिवाली को ‘देवलांग’ नाम से भी जाना जाता है। एक प्रचलित कहानी (Budhi Diwali in Uttarakhand) के अनुसार एक समय प्रजापति ब्रह्मा और सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु में श्रेष्ठता को लेकर संघर्ष हुआ और वे एक-दूसरे के वध के लिए तैयार हो गए। इससे सभी देवी, देवता व्याकुल हो उठे और उन्होंने देवाधिदेव शिवजी से प्रार्थना की। शिवजी उनकी प्रार्थना सुनकर विवाद स्थल पर ज्योतिर्लिंग के रूप में दोनों के बीच खड़े हो गए। उस समय आकाशवाणी हुई कि दोनों में से जो इस ज्योतिर्लिंग के आदि और अंत का पता लगा लेगा वही श्रेष्ठ होगा। ऐसे में ब्रह्माजी ऊपर कि ओर गए और विष्णुजी नीचे की ओर।

कई वर्षों तक वे दोनों खोज करते रहे लेकिन अंत में हल खोजने मे नाकाम रहे। तब से दोनों देवताओं (Budhi Diwali in Uttarakhand) ने माना कि कोई उनसे भी श्रेष्ठ है और वे उस ज्योतिर्मय स्तंभ को श्रेष्ठ मानने लगे। इन क्षेत्रों में महाभारत में वर्णित पांडवों का विशेष प्रभाव है। कुछ लोगों का कहना है कि कार्तिक मास की अमावस्या के समय भीम कहीं युद्ध में बाहर गए थे। इस कारण वहाँ दिवाली नहीं मनाई गई। जब वह युद्ध जीतकर आए तब खुशी में ठीक एक माह बाद दिवाली मनाई गई और यही परंपरा बन गई।

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