पहाड़ी फलों का राजा काफल पहुंचा बाजार, फिर मत कहना ‘काफल पाको मैं नि चाख्यो’

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औषधीय गुणों से भरपूर काफल कई बीमारियों से लड़ने में करता है मदद

हल्द्वानी (पंकज अग्रवाल): गर्मियों के मौसम में उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में फलों की बहार आ जाती है पेड़ मौसमी फलों से लदना शुरू हो जाते हैं। काफल भी उन्हीं मौसमी फलों में से एक है। मौजूदा सीजन में पहली बार जब पहाड़ों से काफल हल्द्वानी के बाजार में पहुंचा तो देखते ही देखते खरीदारों की भीड़ उमड़ पड़ी 240 रुपये किलो की कीमत वाला काफल अल्मोड़ा के लमगड़ा क्षेत्र से हल्द्वानी पहुंचा है। जंगलों में आग लगने और समय से बारिश नहीं होने से इस बार काफल में रस की कमी आई है। जब खट्टे और मीठे स्वाद से भरपूर काफल पहाड़ों से निकलकर हल्द्वानी में तहसील के पास बिकने लगा तो लोगों ने इसे खरीदने में देर भी नहीं लगाई।

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काफल को देखकर किसी की बचपन की यादें ताजा हुईं तो कोई इसके स्वाद का दीवाना निकला। बताते चलें कि पहाड़ों में 4000 से 6000 फीट तक की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में उगने वाला काफल स्थानीय ग्रामीणों की आर्थिकी का जरिया भी है। बात अगर सेहत की करें तो काफल एंटी-ऑक्सीडेंट गुणों के कारण हमारे शरीर के लिए बेहद फायदेमंद होता है। अत्यधिक रस-युक्त और पाचक होने के कारण काफल को खाने से पेट के कई प्रकार के विकार दूर होते हैं। काफल के अनेक औषधीय गुण आयुर्वेद में मिलते हैं। यह फल अपने‌‌ आप में एक जड़ी-बूटी है। चरक संहिता में भी इसके अनेक गुणकारी लाभों के बारे में वर्णन है। काफल के छाल, फल, बीज, फूल सभी का इस्तेमाल आयुर्वेद में किया जाता है। काफल सांस संबंधी समस्याओं, डायबिटीज, पाइल्स, मोटापा, सूजन, जलन, मुंह में छाले, मूत्रदोष, बुखार, अपच, शुक्राणु के लिए फायदेमंद और दर्द निवारण में उत्तम है।

इन दिनों तराई क्षेत्र में गर्मी शुरू होते ही पर्यटकों का रुख पहाड़ की ओर है। ऐसे में सैलानी भी यहां पहाड़ की ठंडी हवा और रसीले काफल का स्वाद लेने से नहीं चूक रहे हैं। स्वाद और औषधीय गुणों से युक्त काफल से जुड़ी एक मार्मिक कहानी भी है जिसे उत्तराखंड में बुजुर्ग अपनी नई पीढ़ी को बताते रहे हैं। आज भी जब पहाड़ों में काफल पकते हैं तब बेटी रूपी चिड़िया कहती है ‘काफल पाको मैं नि चाख्यो’ अर्थात काफल पक गए, मैंने नहीं चखे। उसका जवाब मां रूपी दूसरी चिड़िया देती है ‘पुर पुतई पुर पुर ‘अर्थात पूरे हैं बेटी, पूरे हैं। पहाड़ में आज भी बड़े बुजुर्ग इस लोककथा के बारे में चर्चा करते हुए भावुक हो जाते हैं।