भारत माता का वो पुत्र जिसे सीनियर्स द्वारा रणभूमि छोड़ वापिस आने के ऑर्डर मिलने पर उसने अपना रेडियो सेट ही बंद कर डाला और अकेले ही दुश्मनों से लोहा लेता रहा। इनका टैंक आग की लपटों से घिरा हुआ था बावजूद इसके इस वीर ने अदम्य साहस दिखाते हुए अपना टैंक नहीं छोड़ा और दुश्मन के टैंक को तबाह कर दिया। सेना में मात्र 6 महीने की अपनी नौकरी में इस वीर ने अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिख दिया।
14 अक्टूबर 1950 को सैन्य परिवार में जन्में अरुण खेत्रपाल के खून में जन्म से ही देशभक्ति थी। इनके पिता एमएल खेत्रपाल भी भारतीय सेना में बिग्रेडियर के पद पर तैनात थे। अरुण खेत्रपाल ने 1967 में नेशनल डिफेंस अकैदमी ज्वाइन की जिसके बाद उन्होंने इंडियन मिलिट्री अकैदमी में सैन्य प्रशिक्षण लिया और 13 जून 1971 में वे 17 पूना हार्स में बतौर सेकेंड लेफ्टिनेंट कमीशंड हो गए।
आर्मी ज्वाइन करने के 6 महीने बाद ही भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया। असल में पाकिस्तानी सेना कश्मीर को पंजाब से अलग करने की साजिश कर रहे थे। जिसके तहत पाकिस्तानी सेना ने शकरगढ़ सेक्टर में आने वाली बसंतर नदी के किनारे कब्जा कर लिया और भारतीय सेना को रोकने के लिए अपने टैंकों की पूरी फौज के साथ पूरे इलाके में लैंड माइन बिछा दिया। अब भारतीय सेना के पास विकल्प बचा था तो वो था बसंतर नदी को पार कर पाकिस्तान की सीमा में घुसकर दुश्मन पर हमला करने का। जिसके बाद 47 इंफैंट्री बटालियन को शकरगढ़ सेक्टर में आने वाली बसंतर नदी में पुल बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई जो उन्होंने 15 दिसंबर की रात को ही पूरी कर दी। इसके बाद बड़ी चुनौती थी भारतीय सेना की इंजीनियरिंग विंग के लिए जिन्हें दुश्मनों द्वारा बिछाई गई माइनफील्ड को साफ करना था जिसके बाद 17 पूना हार्स के सैनिक दुश्मन के इलाके में जाकर उनको शिकस्त दे सकें।
वो योद्धा जिसने रणभूमि छोड़ वापिस आने से किया था इनकार
अब लैंड माइन्स हटाने का काम आधा ही पूरा हुआ था कि तभी सूचना मिलती है कि पाकिस्तानी सेना अपने टैंकों के साथ भारतीय सेना की ओर बढ़ रही है। जिसके बाद बसंतर नदी के तट पर मौजूद भारतीय सेना ने टैंक सपोर्ट की मदद मांगी जिस पर तुरंत आसपास मौजूद टैंक मौके पर पहुंचे और इससे पहले की दुश्मन उन पर हमला करते कैप्टन वी.मल्होत्रा, लेफ्टिनेंट अहलावत और सेंकेड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल अपने टैंक के साथ युद्धभूमि में उतर चुके थे। अब भारतीय सेना के इन तीन टैंकों का सामना होने वाला था दुश्मन के दस टैंकों से।
इन तीन टैंकों ने दुश्मन के सात टैंकों को ध्वस्त कर दिया लेकिन इस बीच कैप्टन मल्होत्रा और लेफ्टिनेंट अहलावत बुरी तरह से जख्मी हो गए थे इनमें से एक टैंक दुश्मन सेना के हमले का शिकार हो गया था, वहीं दूसरा टैंक तकनीकी खराबी के चलते किसी काम का नहीं रहा जिसके कारण कैप्टन मल्होत्रा और लेफ्टिनेंट अहलावत को युद्ध भूमि से हटना पड़ा। अब युद्धभूमि में अकेले बचे थे सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल जिन्होंने अपने युद्ध कौशल और बुद्धिमत्ता से दुश्मन सेना के दो टैंकों को ध्वस्त कर दिया। अब सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल दुश्मन सेना के तीसरे टैंक को निशाना बनाने जा ही रहे थे कि तभी एक गोला उनके टैंक पर आ गिरा और सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल का टैंक आग की लपटों से घिर गया। इस बारे में जैसे ही टैंक यूनिट कमांडर को जानकारी हुई तो उन्होंने सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल तो तुरंत वापिस आने के ऑर्डर दिए जिसके बाद सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल ने कहा कि ‘सर मैं अपने टैंक को लावारिस नहीं छोड़ सकता हूं, अभी मेरी गन काम कर रही है, मैं इन दुश्मन को अंजाम तक पहुंचाकर ही वापस आऊंगा.’ इसी दौरान, सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल ने देखा कि दुश्मन सेना का तीसरा टैंक उनसे महज 100 मीटर की दूरी पर है जिसके बाद उन्होंने बिना एक क्षण गवांए पाकिस्तानी सेना के टैंक पर गोलियां बरसाना शुरू कर दिया और कुछ ही देर में दुश्मन टैंक को खाक में मिला दिया। अबतक अकेले ही सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल ने दुश्मन सेना के 4 टैंकों को मिट्टी में मिला दिया था और जैसे ही वो दूसरी ओर खड़े टैंकर को तबाह करने के लिए मुड़े वैसे ही एक गोला उनके टैंक पर आकर गिरा और सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल अपनी मात्रभूमि के लिए शहीद हो गए। युद्धभूमि में अपना अदम्य साहस और पराक्रम दिखाने के लिए मरणोपरांत सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
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