पर्वतीय क्षेत्रों में खतरे में है घराटों का अस्तित्व, अब नहीं सुनाई देती टिक-टिक की आवाज

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उत्तरकाशी (संवाददाता- विनित कंसवाल): घराटों को पर्वतीय क्षेत्रों की शान समझा जाता है। जिसकी टिक-टिक की आवाज आज भी कानों में गूंजती है। अतीत से ही

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पर्वतीय क्षेत्रों में परंपरागत घराट का चलन रहा है। जिससे ग्रामीण क्षेत्र के लोग गेहूं की पिसाई करते हैं। इन पनचक्की से जो आटा निकलता है, उसकी तुलना चक्की के आटे से नहीं की जा सकती। लेकिन अब पर्वतीय क्षेत्रों में घराटों का अस्तित्व खतरे में दिखाई दे रहा है।

इसके बारे में खास बात यह है कि यह बिना बिजली के चलती है। लोगों का मानना है कि घराट में तैयार होने वाला आटा कई नजरिए से स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है। इसलिए आज भी पर्वतीय अंचलों में लोग मांगलिक कार्यों के लिए घराट के आटे का ही उपयोग करते हैं। लेकिन आधुनिकता की मार घराटों पर भी साफ देखी जा सकती है। जिसकी तस्दीक पर्वतीय अंचलों में घराटों की कम होती संख्या कर रहे हैं।

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आज से करीब एक दशक पहले तक पहाड़ी इलाकों में आटा पीसने के लिए घराट का उपयोग किया जाता था। साथ ही ये घराट कई लोगों की आजीविका का भी मुख्य स्रोत माना जाता था। लेकिन आज आधुनिकता और टेक्नोलॉजी के दौर में पांरपरिक घराट अपनी पहचान के साथ-साथ अपना अस्तित्व भी खोते जा रहे हैं। घराट तकनीक का बेहतर नमूना माना जाता है, जो पानी की ऊर्जा से चलता है। लेकिन आज इनकी जगह बिजली और डीजल से चलने वाले चक्कियों ने ले ली है।

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घराट ग्रामीण क्षेत्रों की एक जीवन रेखा होती थी। लोग अपने खेतों में पारंपरिक अनाजों का उत्पादन कर उसे पानी से चलने वाले घराटों में पीसकर आटा तैयार करते थे। इन घराटों में पिसा हुआ आटा कई महीनों तक तरोताजा रहता था। साथ ही आटे की पौष्टिकता भी बनी रहती थ, यही लोगों के स्वस्थ रहने और सेहत का राज भी हुआ करता था। इन घराटों में लोग मंडुवा (कोदा), गेहूं, मक्का, चैंसू जैसे स्थानीय अनाज पीसा करते थे।

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उत्तरकाशी जनपद की बात करें तो कभी गंगा-यमुना घाटी में घराट की अलग ही पहचान हुआ करती थी। हर गांव में करीब 5 से 6 घराट होते थे। लेकिन आज ये पहचान जनपद के गिने चुने गांवों तक सीमित रह गई है। सरकार भले ही लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की कवायद में जुटी हो लेकिन पहाड़ों में ये दावे खोखले नजर आते दिखाई दे रहें हैं। लेकिन आज भी कई लोग इस पुश्तैनी कार्य को बरकरार बनाये हुए हैं।

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डुंडा ब्लॉक के बोन गांव निवासी चन्द्रशेखर चमोली बीते 22 सालों से घराट चला रहे हैं। चमोली का कहना है कि घराट को बढ़ावा दिया जाये तो ये युवाओं के लिए एक रोजगार का नया आयाम हो सकता है। वहीं ग्रामीण धर्मा देवी का कहना है कि घराट का पिसा आटा स्वादिष्ट और पौष्टिकता से भरपूर होता है। पहचान खोते इन पारंपरिक घराटों को अब विरासत के रूप में संजोए रखने की दरकार है, ताकि आने वाली पीढ़ी इससे रूबरू हो सकें।

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