उत्तराखंड की प्रसिद्ध लोककथा, काफल पाको मैं नि चाखो

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Kafal Fruit in Uttarakhand
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Kafal Fruit in Uttarakhand

उत्तराखंड जिसे देवभूमि भी कहा जाता है, यहां हर दूरी पर जगह जगह आपको मंदिर दिखाई देंगे, यहां की सुंदरता हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है। यहां के फल फूल पूरे देश में अपने दैवीय गुणों के लिए प्रसिद्ध हैं आज के इस आर्टीकल में हम बात करेंगे उत्तराखंड में पाये जाने वाले एक ऐसे फल के बारे में जिस में कई प्रकार के दैवीय गुण पाए जाते हैं उस फल का नाम है- काफल

काफल उत्तराखंड का स्वादिष्ट और पौष्टिक फल है, यह सिर्फ फल ही नहीं बल्कि उत्तराखंड की संस्कृति का हिस्सा भी है, उत्तराखंड में बेडू पाको बारामासा, नारेणी काफल पाको चैता मेरी छैला,गीत बड़ा प्रसिद्ध है, इस गीत में जिक्र है कि काफल चैत के महीने पकता है। गर्मियां आते ही पहाड़ों में दुकानों में काफल नजर आने लगते हैं, लोग टोकरियों में काफल लाते हैं और फिर उन्हें दुकानों में बेचते हैं।

इस फल के अंदर एक गुठली भी होती है, यह फल खट्टा मीठा और रसीला होता है, काफल का साइंटिफिक नेम Myrica Esculenta है। ये फल उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और नेपाल में पाया जाता है, ये एक जंगली फल है इसे कहीं उगाया नहीं जाता है, बल्कि ये अपने आप उगता है।

Kafal Fruit in Uttarakhand
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Kafal Fruit in Uttarakhand : काफल हैं दवताओं के योग्य

कुमाऊंनी भाषा में एक लोक गीत है-खाणा लायक इंद्र का, हम छियां भूलोक आई पणां अर्थात हम स्वर्ग लोक में इंद्र देवता के खाने योग्य थे और अब भू लोक में आ गए। 

Kafal Fruit in Uttarakhand : काफल के फायदे

काफल पहाड़ों में पाया जाने वाला एक ऐसा फल है जो औषिधीय गुणों से भरपूर होता है। काफल विटामिन सी से भरपूर होने के कारण जुकाम और बुखार से बचाये रखने में फायदेमंद होता है, इसके अलावा काफल गैस, कब्ज, अतिसार, एसिडिटी में काफी उपयोगी होता है, वहीं काफल खाने से भूख भी बढ़ जाती है इसके अलावा काफल सूजन कम करने में लाभकारी होता है।

पौराणिक कथा

Kafal Fruit in Uttarakhand
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Kafal Fruit in Uttarakhand

बहुत समय पहले एक गांव में एक गरीब औरत और उसकी छोटी सी बेटी रहती थी, वो लकड़ी घास मौसमी फल बेचकर अपना और अपनी बेटी का पापल-पोषण करती थी, चैत्र की महीने में वो जंगल से काफल लेकर आती थी और उन्हें बाजार में बेचती थी। एक बार वो औरत जंगल से काफल तोड़ कर लाई और आंगन में रख दिए और बेटी को कहा कि इनका ध्यान रखना, इन्हें खाना मत और इतना बोलके वो अपने खेत में काम करने चली गई, बच्ची ने मां की बात सुनकर पूरी ईमानदारी से काफलों की रक्षा की लेकिन चैत के महीने की तेज धूप में कुछ काफल सूख कर आधे हो गए।

जैसे ही मां खेत से काम करने के बाद घर पहुंची तो उसने देखा कि काफलों की टोकरी आधी हो रखी है, उसे लगा कि बेटी ने काफल खा लिए, ये सोचकर वो गुस्सा हो गई और गुस्से में उसने अपनी फूल सी बिटिया को जोर से थप्पड़ मार दिया। धूप में भूखी प्यासी मां के प्रहार से उस बच्ची के प्रांण निकल गए।

थोड़ी देर बाद शाम होते ही टोकरी में रखे काफल फिर से ताजे हो गए और टोकरी भर गई, तब जाकर उस मां को अपनी गलती का अहसास हुआ लेकिन तब तक देर हो चुकी थी उसकी बिटिया मर चुकी थी उसके बाद पश्चाताप में उस औरत के भी प्राण उड़ गए।

मान्यताओं के अनुसार माना जाता है कि वो दोनों मां बेटियां, चिड़िया बन गई, और आज भी जब पहाड़ों में काफल पकते हैं तो वो दोनों मां बेटी चिड़ियां के रुप में बोलती हैं- काफल पाको मैं नि चाखो यानी की काफल पके मैंने नही चखे और उसके जवाब में मां बोलती है पुर पतई पुरे पुर, अर्थात, मेरी प्यारी बेटी काफल पूरे हैं।

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