48 घंटे में कराएं 16 वर्षीय रेप पीड़िता का 28 हफ्ते का गर्भपात: हाईकोर्ट

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सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने सुनाया फैसला

नैनीताल/देहरादून, ब्यूरो। उत्तराखंड हाईकोर्ट की जस्टिस आलोक कुमार वर्मा की सिंगल बेंच ने सोमवार को चमोली गढ़वाल की रेप पीड़ित गर्भवती नाबालिग के मामले में फैसला सुनाते हुए पीड़िता का 28 सप्ताह 5 दिन के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति दी है। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि दुष्कर्म के आधार पर पीड़िता को गर्भपात का अधिकार है। गर्भ में पल रहे भ्रूण के बजाय दुष्कर्म पीड़िता की जिंदगी ज्यादा मायने रखती है। हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि पीड़िता का गर्भपात मेडिकल टर्मिनेशन बोर्ड के मार्गदर्शन और चमोली के सीएमओ की निगरानी में होगा। यह प्रक्रिया 48 घंटे के भीतर होनी चाहिए। इस दौरान यदि पीड़िता के जीवन पर कोई जोखिम आता है तो इसे तुरंत रोक दिया जाए।

यह आदेश इसलिए अहम है, क्योंकि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट के तहत सिर्फ 24 हफ्ते की प्रेग्नेंसी को ही नष्ट किया जा सकता है। हाईकोर्ट ने इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला को नजीर बताया। कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में ऐसे मामले में गर्भ समाप्ति की अनुमति दी थी जहां प्रेग्नेंसी का समय 25-26 हफ्ते थी। इसी साल शर्मिष्ठा चक्रवर्ती के केस में भी सुप्रीम कोर्ट ने 26 हफ्ते की प्रेग्नेंसी को खत्म करने का आदेश दिया था। 2007 के एक केस में भी सुप्रीम कोर्ट ने 13 साल की पीड़िता को गर्भपात की अनुमति दी थी। हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि अगर बच्चा जिंदा पैदा होता है तो वह उसे क्या नाम देगी, उसका पालन पोषण कैसे करेगी, जबकि वह खुद नाबालिग है। वो अपने साथ हुए दुष्कर्म को कभी भी याद नहीं रखना चाहती। इसलिए प्रेग्नेंसी टर्मिनेशन की इजाजत देना ही न्याय होगा।

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हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने फैसला सुनाते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि प्रजनन को विकल्प बनाने का अधिकार भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक पहलू है। साथ ही महिला खुद के जीवन को होने वाले खतरों से बचाने के लिए सभी जरूरी कदम उठा सकती है। आपको बता दें कि उत्तराखंड के चमोली गढ़वाल की 16 साल की रेप पीड़िता ने पिता के जरिए 12 जनवरी को चमोली में आईपीसी की धारा 376 और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012 की धारा 6 के तहत प्राथमिकी दर्ज करवाई थी। पीड़िता की सोनोग्राफी के बाद 28 हफ्तों से ज्यादा की प्रेग्नेंसी सामने आई। जांच के बाद कहा गया कि मां की जान का जोखिम है इसलिए इस स्टेज में अबॉर्शन करना सही नहीं है। मेडिकल बोर्ड ने कहा कि 8 महीने का गर्भ अबॉर्ट करते हैं तो पीड़िता की जान जा सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि प्रेग्नेंसी की इस स्टेज में बच्चा असामान्य हो सकता है।

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