/ Apr 18, 2025
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UTTARAKHAND CLIMATE CHANGE: उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में बड़े बदलाव हो रहे हैं, जो अब एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। पहले जहां इस राज्य का मौसम संतुलित और पूर्वानुमान योग्य था, वहीं अब बारिश के असामान्य पैटर्न, बर्फबारी में कमी, और गर्मी के महीनों में रिकॉर्डतोड़ तापमान जैसी घटनाएं आम हो गई हैं। सबसे बड़ा खतरा हिमालयी ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से पैदा हुआ है। पिछले कुछ दशकों में ग्लेशियरों के पिघलने की गति कई गुना बढ़ गई है। इसका नतीजा यह है कि गंगा और इसकी सहायक नदियों में पानी का बहाव अस्थिर हो गया है, जिससे कभी बाढ़ तो कभी सूखे जैसी स्थितियां बन रही हैं।
इसके अलावा राज्य में बारिश का पैटर्न भी बदल रहा है। कभी सूखा तो कभी अत्यधिक बारिश की वजह से भूस्खलन और बाढ़ की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। नदियों का जलस्तर अनियंत्रित हो गया है, जिससे पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों की सुरक्षा खतरे में पड़ गई है। कई गांवों को बार-बार विस्थापित होना पड़ रहा है, जिससे स्थानीय आबादी के सामने रोज़गार और रहने की समस्या पैदा हो गई है। उत्तराखंड में तापमान लगातार बढ़ रहा है, जिससे इस पहाड़ी राज्य का पर्यावरण संतुलन बिगड़ता जा रहा है।
मौसम अब पहले से ज्यादा अनिश्चित और खतरनाक हो गया है। तेज आंधी-तूफान और बेमौसम बारिश आम बात हो गई है, जिससे स्थानीय लोगों की जिंदगी मुश्किल हो रही है। इसके अलावा मानव हस्तक्षेप ने भी जलवायु पर गंभीर असर डाला है। बीते कुछ दशकों से पहाड़ी इलाकों में शहरीकरण तेजी से बढ़ा है, जिससे तापमान और बढ़ गया है। सड़कों, इमारतों और अन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण ने प्रकृति को बुरी तरह प्रभावित किया है। यही कारण है कि अब उत्तराखंड में जलवायु से जुड़ी आपदाएं तेजी से बढ़ रही हैं। अगर विकास इसी तरह अनियंत्रित तरीके से होता रहा, तो आने वाले वर्षों में हालात और बिगड़ सकते हैं।
राज्य को जलवायु के अनुकूल विकास की रणनीति अपनाने की जरूरत है, नहीं तो प्राकृतिक आपदाएं यहां के लोगों के लिए एक स्थायी संकट बन सकती हैं। पर्यावरणविदों का मानना है कि अगर समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले वर्षों में उत्तराखंड का पारिस्थितिक संतुलन पूरी तरह बिगड़ सकता है। सरकार और स्थानीय लोगों को मिलकर जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए ठोस प्रयास करने होंगे, वरना भविष्य और भी ज्यादा मुश्किल हो सकता है।
उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना एक गंभीर समस्या बन गई है। इस प्रक्रिया से कई छोटी झीलें आकार में बढ़ रही हैं, जो भविष्य में विनाशकारी बाढ़ का कारण बन सकती हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से बनने वाली इन झीलों का आकार बढ़ने से उनके टूटने का खतरा बढ़ जाता है। जब ये झीलें अचानक टूटती हैं, तो निचले क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पानी और मलबे का बहाव होता है, जिसे ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) कहा जाता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने से झीलों के बनने का सिलसिला आगे भी जारी रहेगा।
इन झीलों के आकार में बढ़ोतरी होने से GLOF का खतरा भी बढ़ रहा है। उत्तराखंड में ग्लेशियरों के पिघलने से बनी झीलों का आकार तेजी से बढ़ रहा है, जिससे संभावित आपदाओं का खतरा बढ़ गया है। भागीरथी कैचमेंट में स्थित खतलिंग ग्लेशियर के पिघलने से भिलंगना झील का क्षेत्रफल पिछले 47 वर्षों में 0.38 वर्ग किलोमीटर बढ़ा है। यह झील 4,750 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, और इसकी गहराई और पानी की मात्रा का सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। इन खतरों को देखते हुए, उत्तराखंड सरकार और वैज्ञानिक संस्थान मिलकर इन झीलों की निगरानी और प्रबंधन के लिए ठोस कदम उठा रहे हैं।
उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के कारण बागवानी उत्पादन में भारी गिरावट हो रही है। तापमान में वृद्धि, अनियमित वर्षा, और मौसम की चरम परिस्थितियों ने फसलों की पैदावार को बुरी तरह प्रभावित किया है। उदाहरण के लिए, सेब की खेती, जो राज्य की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है, अब संकट में है। पहले जहां सेब के बागान फल-फूल रहे थे, वहीं अब तापमान बढ़ने से उत्पादन में कमी आ रही है। इसी तरह, टमाटर और आलू जैसी सब्जियों की पैदावार भी घट रही है, जिससे किसानों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है।
अगर समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो उत्तराखंड की बागवानी उद्योग पूरी तरह से बर्बाद हो सकता है। उदाहरण के लिए, राज्य में आम, लीची और अमरूद जैसे फलों की पैदावार में 44% तक की कमी आई है। इसके अलावा, तापमान में वृद्धि के कारण सेब की खेती भी प्रभावित हो रही है। पहले जहां सेब के बागान फल-फूल रहे थे, वहीं अब गर्मियों के तापमान में औसतन 4 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी से उत्पादन में कमी आ रही है।
उत्तराखंड में मौसम का मिजाज अब पहले जैसा नहीं रहा। कुछ साल पहले तक यहाँ का मौसम अनुमान के मुताबिक चलता था, लेकिन अब हालात बदल गए हैं। बारिश का दौर अनियमित हो गया है, कभी बेमौसम मूसलधार बारिश होती है तो कभी लंबे समय तक सूखा पड़ जाता है। भारी बारिश के कारण नदियाँ उफान पर आ जाती हैं, जिससे बाढ़ और भूस्खलन जैसी घटनाएँ बढ़ गई हैं। इन आपदाओं की तीव्रता भी पहले से ज्यादा हो गई है, जिससे लोगों का जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएँ अब ज्यादा बार होने लगी हैं। इसका असर गाँवों और शहरों दोनों पर पड़ रहा है। अचानक आई बाढ़ खेतों को बर्बाद कर देती है, जिससे किसानों की फसलें नष्ट हो जाती हैं। भूस्खलन के कारण सड़कों का कटाव हो जाता है, जिससे यातायात ठप पड़ जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में यह समस्या और गंभीर हो जाती है, क्योंकि वहाँ सड़कें पहले से ही संकरी और खतरनाक होती हैं।
उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश और बर्फबारी में कमी आ रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि हिमालय के पर्वत अपेक्षाकृत नए और नाजुक हैं, जिससे वे बाढ़, भूस्खलन और भूकंप के प्रति संवेदनशील हैं, विशेषकर मानसून के दौरान। इसके अलावा, भारत के 80% से अधिक लोग उन जिलों में रहते हैं जो जलवायु-प्रेरित आपदाओं के जोखिम में हैं, जिसमें उत्तराखंड भी शामिल है। हालांकि, हाल के वर्षों में बारिश और बर्फबारी के पैटर्न में अनियमितता देखी गई है, जो जलवायु परिवर्तन का संकेत है। यह परिवर्तन न केवल पर्यावरण पर बल्कि स्थानीय समुदायों की आजीविका पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है।
उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों की पैदावार में लगातार गिरावट हो रही है। राज्य की 69.45% आबादी कृषि, जड़ी-बूटी और वन संपदा पर निर्भर है, लेकिन कृषि योग्य भूमि केवल 13% है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन की मार से किसानों की समस्याएँ और बढ़ गई हैं। तापमान में वृद्धि और वर्षा के पैटर्न में बदलाव ने फसलों के विकास को बाधित किया है। फरवरी 2023 में, कानपुर मंडल में औसत तापमान सामान्य से 3 डिग्री अधिक रहा, जिससे पकने वाली फसलों का उत्पादन 5 से 10 प्रतिशत तक कम हो गया। इसी तरह की स्थिति उत्तराखंड में भी देखी जा रही है, जहाँ तापमान में वृद्धि और अनियमित वर्षा फसलों की उत्पादकता को प्रभावित कर रही है।
जलवायु परिवर्तन के कारण मिट्टी की उर्वरता में कमी, नमी की न्यूनता और भूमिगत जल स्तर का गिरना जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। इन प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण बागवानी फसलों की खेती पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है, जिससे उत्पादकता में कमी आई है। कृषि विशेषज्ञों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप गन्ना, मक्का, ज्वार, बाजरा और रागी जैसी फसलों की उत्पादकता दर में वृद्धि हो सकती है, जबकि गेहूँ, धान और जौ की उपज में गिरावट दर्ज हो सकती है। आलू के उत्पादन में भी अभूतपूर्व गिरावट की संभावना है।
उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के कारण स्नो लाइन ऊपर की ओर बढ़ रही है, जो राज्य के पर्यावरण और समाज के लिए गंभीर खतरा है। स्नो लाइन का ऊपर खिसकना ग्लेशियरों के पिघलने का संकेत है, जिससे नदियों में पानी की मात्रा अनियमित हो रही है। यह कृषि, पेयजल आपूर्ति और जलविद्युत उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। स्नो लाइन के ऊपर खिसकने से उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों में वनस्पति और जैव विविधता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। पारंपरिक चरागाह क्षेत्रों में कमी आ रही है, जिससे स्थानीय पशुपालन प्रभावित हो रहा है। भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हो रही है।
उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के कारण शीतकालीन वर्षा की अनियमितता बढ़ गई है। पहले, सर्दियों में भूमध्यसागर से आने वाले पश्चिमी विक्षोभ के चलते राज्य में नियमित वर्षा होती थी, जिसे ‘मावठ’ कहा जाता है। यह वर्षा रबी की फसलों के लिए लाभदायक मानी जाती थी। हालांकि, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से अब वर्षा का पैटर्न बदल रहा है। कभी अत्यधिक वर्षा होती है, जिससे बाढ़ और भूस्खलन जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं, तो कभी लंबे समय तक सूखा पड़ता है, जिससे फसलें बर्बाद होती हैं।
इस अनिश्चितता के कारण किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है। इसके अलावा, अनियमित शीतकालीन वर्षा से मिट्टी का कटाव बढ़ रहा है, जिससे भूमि की उर्वरता कम हो रही है। वनस्पतियों और जीव-जंतुओं पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, जिससे जैव विविधता खतरे में है। जल संसाधनों की उपलब्धता में भी कमी आ रही है, जिससे पीने के पानी की किल्लत बढ़ रही है।
उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के कारण पौधों के पुष्पन व्यवहार में गंभीर उतार-चढ़ाव देखे जा रहे हैं। बढ़ते तापमान और बदलते वर्षा पैटर्न ने पारिस्थितिकी तंत्र को अस्थिर कर दिया है, जिससे पौधों की फूलने की समय-सारिणी में अवांछित परिवर्तन हो रहे हैं। यह असंतुलन न केवल वनस्पतियों के लिए हानिकारक है, बल्कि उन पर निर्भर जीव-जंतुओं के लिए भी खतरा पैदा करता है। पारंपरिक फूलने के समय में बदलाव के कारण परागण करने वाले कीटों की गतिविधियों में भी असंगति आ रही है, जिससे परागण प्रक्रिया बाधित हो रही है।
इसके परिणामस्वरूप, बीज उत्पादन में कमी और पौधों की प्रजातियों की संख्या में गिरावट देखी जा रही है। यह स्थिति कृषि उत्पादन को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है, जिससे किसानों की आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण नई बीमारियों और कीटों का प्रकोप बढ़ रहा है, जो पौधों के स्वास्थ्य को और अधिक नुकसान पहुंचा रहा है। इस प्रकार, उत्तराखंड की वनस्पतियों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव व्यापक और विनाशकारी होता जा रहा है, जिससे संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में है।
उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन ने कृषि क्षेत्रों को बुरी तरह प्रभावित किया है। तापमान में वृद्धि और अनियमित वर्षा के कारण फसल उत्पादन में गिरावट आई है। इससे किसान अपनी आजीविका खो रहे हैं और कृषि योग्य भूमि बंजर होती जा रही है पारंपरिक फसलें अब असफल हो रही हैं, जिससे किसानों को मजबूरन नई फसलों की ओर रुख करना पड़ रहा है। यह परिवर्तन न केवल आर्थिक बोझ बढ़ा रहा है, बल्कि सांस्कृतिक विरासत को भी नुकसान पहुंचा रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण मिट्टी की उर्वरता कम हो रही है, जिससे भूमि का क्षरण हो रहा है। यह स्थिति कृषि के लिए घातक सिद्ध हो रही है, जिससे खाद्य सुरक्षा पर भी खतरा मंडरा रहा है।
– अभिषेक सेमवाल
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