कुछ इस तरह बीत रहा है पहाड़ी महिलाओं का महिला दिवस

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चमोली (संवाददाता- पुष्कर सिंह नेगी): महिला मुक्ति संघर्षों को सलाम करते हुए आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है। इस महिला दिवस को दुनिया भर में संघर्षशील महिलाओं ने, मेहनतकश महिलाओं ने अपने लिए लड़कर हासिल किया है और इस संघर्ष का सौ साल से भी अधिक का इतिहास है। परंतु यह याद रखना चाहिए कि वह मात्र अभिजात्य “हैप्पी” टाइप का दिवस भर ही नहीं है। अमूमन हमारे यहां करवाचौथ भी “हैप्पी” है और महिला दिवस भी, पर यह महिला दिवस मजदूर, मेहनतकश महिलाओं द्वारा अपने लिए बड़े संघर्षों के बाद हासिल किया गया दिवस है। हम बात करेंगे पहाड़ की महिलाओं की कि उनके लिए यह सब कितने “हैप्पी” हैं। तो सबसे पहले जान लेते हैं अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुरूआत के बारे में।

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गौरतलब है कि सन् 1857 को न्यूयॉर्क में टैक्सटाइल मजदूर महिलाओं ने विशाल जन प्रतिरोध को संगठित किया था और दो साल के संघर्ष के बाद इन महिलाओं ने संगठित होने का अधिकार को जीत लिया था। 08 मार्च 1908 में 15 हजार कामगार महिलाओं ने सोशियलिस्टों के नेतृत्व में महिलाओं के वेतन वृद्धि, काम के कम घंटों, महिलाओं के लिए मताधिकार और बाल मजदूरी के खात्मा के लिए जूझारू प्रर्दशन किया था। सन 1909 में यही महिला दिवस पहली बार 28 फरवरी को मनाया गया था। सन 1913 में काफी विचार-विमर्श के बाद महिला दिवस को 8 मार्च के दिन तय कर दी गई। सन 1914 में 8 मार्च को यूरोप में महिलाओं ने विश्वयुद्ध के खिलाफ अभियान चलाते हुए प्रर्दशन किए और 8 मार्च 1917 को रूस में महिलाओं ने जारशाही के खिलाफ रोटी, शांति और जमीन के नारों के साथ हड़ताल शुरू की और महिला कामगारों की इस हड़ताल ने जारशाही के ताबूत में आखिरी कील ठोकने का बड़ा काम किया था। इस तरह देखें तो यह मेहनतकश महिलाओं का दिवस है जो उन्होंने स्वयं के लिए लड़कर अर्जित किया है।

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परंतु देखने और समझने की बात यह है कि हमको इसे औपचारिकता निभाने, इसके ऐतिहासिक संदर्भ काटकर इसे सजावटी दिवस बनाने की हर कोशिश का तीखा प्रतिवाद करने की जरूरत है। सौ साल से भी अधिक समय पहले महिलाओं ने जिन संदर्भों के लिए संगठित होकर संघर्ष किए हैं उनको साकार होना आज भी शेष हैं।

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सौ साल से भी अधिक समय पहले हुए महिला मुक्ति संघर्षों की बदौलत आज दुनियां अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रही है और चारों तरफ सोशल मीडिया पर जमकर लोग एक-दूसरे को बधाई और शुभकामनाएं संदेश दनदना रहे हैं। लेकिन अब बात पहाड़ों की महिलाओं की करें तो उनके जीवन में आज के दिन भी मेहनत करने के अलावा कोई महिला दिवस मनाने की फुर्सत ही नहीं है और वे तो ठीक से जानती भी नहीं है कि दुनियां आखिर आज किस लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रही हैं। पहाड़ जैसी ही जिंदगी जीती हैं आखिरकार पहाड़ की महिलाएं।

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भले ही दुनिया और शहरों के रहवासी महिला दिवस की चकाचौंध आयोजनों में शिरकत कर रहे होंगे पर आपको पहाड़ की महिलाएं आज के दिन भी हाड़तोड़ मेहनत करती हुई दिखाई दे रही होंगी। भले ही अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मूल में काम के घंटों को कम करना भी है पर यह पहाड़ी महिलाओं को तो चौबीसों घंटे कोल्हू के बैल की तरह बस काम में जुते हुए रहना है।

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सुबह सुबह जागकर घर गृहस्थी के काम-धंधे से निबटकर अपने मवेशियों के चारे पत्ती, जलावन के लिए लकड़ियां, फिर मजदूरी फिर रात का घर आंगन का कामकाज, बच्चों की पढ़ाई व परवरिश बस सबकुछ यंत्रचालित सी यह पहाड़ी महिलाओं का जीवन भला कैसे हैप्पी महिला दिवस मना सकती हैं। आज भी यहां की महिलाओं का न सिर का बोझ कम हुआ है और न ही कंधों का बोझ। सरकारों ने भी पहाड़ी महिलाओं के जीवन को सुदृढ़ और सुखदायी बनाए जाने की दिशा में कुछ आमूलचूल परिवर्तन नहीं किए। आज पहाड़ी महिलाओं को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ही एक मात्र आजीविका का साधन भर है जो कि उनके जीवन को बदलने के लिए नाकाफी साबित हो रहा है।

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ये पहाड़ी महिलाऐं हर रोज जंगलों, पहाड़ों और जंगलों से लकड़ियां, चारापत्ती लाती हैं इस दौरान उनके साथ बहुत बार अप्रिय घटनाएं भी घट जाती हैं। जंगल और पहाड़ में महिलाओं पर जंगली हिंसक जानवरों के हमले, पहाड़ी से गिरकर अकाल मौत तो कभी बिना सड़कों के गर्भवती होने की दशा में रास्तों में बच्चों को जनना या दोनों की मौत हो जाना यह सब इसके लिए बदनसीबी से कमतर नहीं है। यहां भी सरकारों ने उनके लिए कोई सुरक्षा बीमा आदि की व्यवस्था नहीं की है जिससे घायल होने पर उनके इलाज में मदद मिल सके या मृत्यु हो जाने पर परिवार को सहायता मिल सके। बस पहाड़ों की महिलाओं को जन्म के साथ ही मरने की आश में हाड़तोड़ मेहनत करते जाने की विवशता है। न जाने कब इन पहाड़ों की महिलाओं की दशा और दिशा बदलने का वक्त आयेगा।

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