/ Mar 12, 2025
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HOLI 2025: होली जिसे रंगों का त्योहार कहा जाता है, भारत में धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व की शुरुआत होलिका दहन से होती है। इस वर्ष होलिका दहन गुरुवार, 13 मार्च 2025 को होगा, जबकि रंगोत्सव अगले दिन 14 मार्च 2025, शुक्रवार को मनाया जाएगा। शहरों और गांवों में होली की लकड़ियों को सजाने की तैयारी पहले से ही शुरू हो चुकी है। होलिका दहन के दिन हनुमानजी की पूजा करने का भी विशेष महत्व है। मान्यता है कि ऐसा करने से पूरे साल शुभ फल प्राप्त होते हैं और नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है।
होलिका दहन फाल्गुन मास की शुक्ल पूर्णिमा को किया जाता है। इस बार फाल्गुन पूर्णिमा तिथि 13 मार्च को सुबह 10:25 बजे से शुरू होकर 14 मार्च को दोपहर 12:23 बजे तक रहेगी। शुभ मुहूर्त की बात करें तो होलिका दहन गुरुवार रात 11:26 बजे से रात 12:30 बजे तक किया जा सकता है। हालांकि, भद्रा के प्रभाव को देखते हुए होलिका दहन का सही समय रात को ही रहेगा। भद्रा का समय 13 मार्च को रात 8:14 बजे से 10:44 बजे तक है, इसलिए इसके समाप्त होने के बाद होलिका दहन करना शुभ रहेगा।
HOLI का इतिहास बहुत पुराना है और इसका उल्लेख कई धार्मिक ग्रंथों, पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक संदर्भों में मिलता है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार, होली का सबसे प्रसिद्ध प्रसंग भक्त प्रह्लाद और उसके पिता हिरण्यकश्यप से जुड़ा है। हिरण्यकश्यप एक अहंकारी राजा था, जो खुद को भगवान मानता था और चाहता था कि सभी लोग उसकी पूजा करें। लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। यह देखकर हिरण्यकश्यप क्रोधित हो गया और उसने अपने पुत्र को मारने के कई प्रयास किए, लेकिन हर बार भगवान विष्णु ने प्रह्लाद की रक्षा की।
अंत में, हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका से मदद मांगी, जिसे आग से न जलने का वरदान प्राप्त था। योजना के अनुसार, होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठ गई, लेकिन भगवान की कृपा से प्रह्लाद बच गया और होलिका जलकर भस्म हो गई। तभी से होलिका दहन की परंपरा शुरू हुई, जिसे बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है। इतिहास में होली के अन्य संदर्भ भी मिलते हैं। इसे कृषि से जुड़े त्योहार के रूप में भी देखा जाता है, क्योंकि यह फसल कटाई के समय आता है। प्राचीन काल में इसे ‘वसंतोत्सव’ और ‘काम महोत्सव’ के रूप में भी मनाया जाता था।
यह त्योहार भगवान कृष्ण से भी जुड़ा हुआ है। वृंदावन और मथुरा में होली विशेष रूप से रंगों और भक्ति से भरी होती है, जो राधा और कृष्ण की लीलाओं से प्रेरित है। इतिहासकारों के अनुसार, होली का उल्लेख पुराणों, जातक कथाओं और संस्कृत साहित्य में भी मिलता है। संस्कृत नाटकों में इस पर्व का जिक्र ‘रंग’ और ‘होलका’ के रूप में किया गया है। आज भी यह त्योहार न केवल भारत में बल्कि नेपाल, बांग्लादेश और कई अन्य देशों में भी मनाया जाता है। समय के साथ होली के रूप और रंग भले ही बदल गए हों, लेकिन इसका मूल संदेश, जो प्रेम, भाईचारा और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है।
आध्यात्मिक रूप से, होलिका दहन हमें अपने भीतर की नकारात्मकता, अहंकार, और बुरी प्रवृत्तियों को समाप्त करने की प्रेरणा देता है। यह पर्व आत्मशुद्धि का अवसर प्रदान करता है, जिससे हम अपने मन में सकारात्मकता और सद्गुणों का विकास कर सकें। यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है और भक्त प्रह्लाद की भक्ति तथा भगवान विष्णु की कृपा का स्मरण कराता है। मान्यता है कि इस दिन की गई पूजा और होलिका की अग्नि में समर्पित सामग्री नकारात्मक ऊर्जा को दूर करती है और सुख-समृद्धि का आह्वान करती है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, होलिका दहन का समय शरद ऋतु की समाप्ति और वसंत ऋतु के आगमन का होता है, जब वातावरण में बैक्टीरिया और कीटाणुओं की वृद्धि होती है। होलिका दहन के दौरान उत्पन्न उच्च तापमान पर्यावरण और शरीर में मौजूद हानिकारक बैक्टीरिया को नष्ट करने में सहायक होता है, जिससे स्वास्थ्य में सुधार होता है। वैज्ञानिक दृष्टि से, इस अग्नि की परिक्रमा करने से शरीर को गर्मी मिलती है, जिससे मौसमी बीमारियों से बचाव में सहायता मिलती है। होलिका दहन के बाद बची हुई राख को घर में लाने और उसे लगाने की परंपरा भी है, जिससे शरीर पर मौजूद हानिकारक सूक्ष्मजीव नष्ट हो जाते हैं।
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