इंदिरा ने क्यों छोड़ दिया गाय और बछडे को हाथ के लिए

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क्या आप को पता है कि कभी कांग्रेस का चुनाव चिन्ह गाय और बछड़ा हुआ करता था. और किस के कहने पर हाथ चुनाव चिन्ह लिया था. शुरूआत करते हैं कांग्रेस में इंदिरा गांधी के निष्कासन से 1977 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी की बुरी तरह हार हुई….इमरजेंसी हटने के बाद लोकसभा का यह चुनाव हुआ था तो इमरजेंसी में हुई ज्यादतियों का जनता ने इस चुनाव में बदला लिया…इस चुनाव में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह था गाय और बछड़ा तब विरोधियों ने गाय और बछड़े को इंदिरा गांधी और संजय गांधी के रूप में खूब प्रचारित किया.

अब इस रिजल्ट के बाद कांग्रेस में भी घमासान होना लाजिमी था कांग्रेस के अंदर इंदिरा गांधी और कांग्रेस के दिग्गज नेता यशवंतराव चव्हाण के बीच सत्ता संघर्ष शुरू हो गया. इस सत्ता संघर्ष पर इंदिरा गांधी के कांग्रेस से निष्कासन के बाद जाकर ही कहीं विराम लगा लेकिन इंदिरा गांधी कहां मानने वाली थी. इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं के साथ मिलकर नई पार्टी बना दी.

इसे कांग्रेस में अब तक की सबसे बड़ी टूट कहा जाता है इंदिरा गांधी ने इस नये राजनैतिक दल नाम रखा इंदिरा कांग्रेस. संक्षेप में इसे इंका भी कहा जाता है. चुनाव आयोग में इस राजनीतिक दल के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया चल रही थी तो नये दल के चुनाव चिन्ह के लिए इंदिरा गांधी के सामने चुनाव आयोग ने तीन विकल्प रखे. हाथी, साइकिल और हाथ इस बीच इंदिरा गांधी को अपनी पार्टी को भी मजबूत करना था तो वह पूरे देश में घूम कर अपने पुराने साथियों से मिल रही थी और अपने पक्ष में जोड़ रही थी. इस के अलावा इंदिरा ने पार्टी के कार्यों को मजबूती देने के लिए तीन महासचिव बनाये. ये महासचिव थे प्रणव मुखर्जी, बूटा सिंह और भीष्म नारायण सिंह. इस बीच चुनाव आयोग एक दिन इंदिरा कांग्रेस को चुनाव चिन्ह फाइनल करने के लिए बुलाया…लेकिन उस दिन इंदिरा गांधी दिल्ली में नहीं थी..वह उस दिन आंध्र प्रदेश के दौरे पर थी और पीवी नरसिंहा राव के साथ उनकी मुलाकात तय थी. फिर ऐसे में बूटा सिंह को चुनाव आयोग भेजा गया. लेकिन चुनाव आयोग गये बूटा सिंह को चुनाव चिन्ह के विकल्पों की जानकारी नहीं थी. तो उन्होंने चुनाव चिन्ह फाइनल करने से पहले चुनाव आयोग के अधिकारियों से कहा कि वे मैडम मतलब इंदिरा गांधी से बात करके बताते हैं….फिर बूटा सिंह ने आंध्र प्रदेश गई इंदिरा गांधी को फोन लगाया…उन्हें पता था कि वह उस समय पीबी नरसिंहा राव के साथ हैं.

इंदिरा ने क्यों छोड़ दिया गाय और बछडे को हाथ के लिए

तब आज की तरह मोबाइल नहीं थे दूरभाष के लिए टेलीफोन ही एक मात्र विकल्प होता था और फोन लाइन का डिस्टर्ब रहना भी आम बात थी. अब इंदिरा और बूटा सिंह के बीच फोन में बात होने लेगी. बूटा सिंह ने इंदिरा गांधी को चुनाव चिन्ह फाइनल करने के बारे में पूछा, तो फोन में डिस्टर्बेंस तो था ही ऊपर से बूटा सिंह के पंजाबी लहजे के कारण इंदिरा गांधी हाथी और हाथ के बीच में अंतर नहीं समझ पार रही थी. ऐसे में इंदिरा गांधी ने झुंझला कर फोन पीवी नरसिंह राव को दे दिया. अब नरसिंहा राव को जितना भी समझ आना था वो आया लेकिन उनके बीच में हाथ चुनाव चिन्ह को लेकर सहमति बन गई और इंदिरा कांग्रेस को चुनाव चिन्ह मिल गया हाथ. ये भी कहा जाता है कि कांग्रेस से निष्कासन के बाद और नई पार्टी बनाने के दौरान वे बहुत परेशान थी. मानसिक शांति को लिए तांत्रिकों और धर्मगुरूओं की शरण में भी जाने लगी थी. एक दिन वे शंकराचार्य स्वामी चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती से मिलने गई. शंकराचार्य स्वामी चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य थे.

इस मुलाकात में इंदिरा ने उनसे चुनाव चिन्ह को लेकर उनकी राय मांगी. तो शंकराचार्य ने तथास्तु की मुद्रा में अपना हाथ उठा दिया. जिसके बाद ही इंदिरा ने हाथ को अपना चुनाव चिन्ह बनाने की ठान ली थी और आख़िरकार इंदिरा कांग्रेस को चुनाव चिन्ह हाथ मिल गया…जनवरी 1980 में सातवीं लोकसभा के चुनाव हुए और उसमें इंदिरा कांग्रेस का नारा ही बन गया था – जात पर ना पात पर मोहर लगेगी हाथ पर. इस चुनाव में इंदिरा का मैजीक काम आया और हाथ चुनाव चिन्ह कांग्रेस के लिए शुभ हुआ और इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आ गई. 1984 में कांग्रेस और इंदिरा कांग्रेस में विलय हो गया और हाथ कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बन कर रह गया.