/ Nov 09, 2025
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UTTARAKHAND SILVER JUBILEE: उत्तराखंड अपनी स्थापना के 25 साल पूरे होने पर रजत जयंती (सिल्वर जुबली) मना रहा है। 9 नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर एक स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आया यह पर्वतीय प्रदेश इन ढाई दशकों में एक लंबा और चुनौतीपूर्ण सफर तय कर चुका है। राज्य निर्माण का उद्देश्य यह था कि यहाँ के निवासियों को उनकी भौगोलिक और सांस्कृतिक चुनौतियों के अनुरूप शासन और विकास मिल सके। उत्तराखंड राज्य का गठन एक गहरे सामाजिक और आर्थिक आंदोलन की उपज था।

आंदोलनकारियों का मानना था कि पर्वतीय जनता की प्राथमिकताएँ मैदानी इलाकों से भिन्न हैं और बड़े राज्य के प्रशासनिक ढाँचे में उनकी आवाज़ को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जा रहा। तीन प्रमुख लक्ष्य थे न्यायसंगत आर्थिक विकास जो पलायन को रोके, जल-जंगल-जमीन की सुरक्षा, और एक पारदर्शी, संवेदनशील शासन प्रणाली की स्थापना। राज्य बनने के बाद सड़कों, स्कूलों, कॉलेजों और स्वास्थ्य केंद्रों के निर्माण पर जोर दिया गया। लेकिन समय के साथ यह स्पष्ट हुआ कि केवल ढाँचागत विकास पर्याप्त नहीं है; हमें ऐसी पर्वतीय अर्थव्यवस्था चाहिए जो प्रकृति के साथ तालमेल बिठा सके।

राज्य बनने के बाद ढाँचागत विकास में तेज़ी आई। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और चारधाम ऑल-वेदर रोड जैसी परियोजनाओं ने सुदूर गाँवों को जोड़ा। ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन और देहरादून, पंतनगर, पिथौरागढ़ एयरपोर्ट के विस्तार ने पर्यटन और व्यापार को बल दिया। पर्यटन में भी भारी वृद्धि हुई। धार्मिक यात्रा के साथ साहसिक और वन्यजीव पर्यटन ने नई दिशा दी। होमस्टे नीति ने स्थानीय लोगों को रोजगार और पर्यटकों को असली पहाड़ी जीवन का अनुभव दिया। महिलाओं के लिए पंचायत आरक्षण और स्वयं सहायता समूहों के जरिये आर्थिक स्वावलंबन ने सशक्तिकरण को नई ऊँचाई दी।

राज्य बनने का एक बड़ा उद्देश्य पलायन रोकना था, लेकिन यह अब भी सबसे गंभीर समस्या है। हजारों गाँव खाली हो चुके हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की कमी ने ग्रामीण युवाओं को मैदानों की ओर धकेला। पर्यावरणीय असंतुलन एक और बड़ी चुनौती है। अनियंत्रित निर्माण और वनों की कटाई ने आपदाओं को बढ़ाया है। केदारनाथ (2013), चमोली (2021) और जोशीमठ (2023) जैसी घटनाएँ विकास मॉडल की सीमाएँ उजागर करती हैं। कृषि घाटे में है, उद्योग मैदानी जिलों तक सीमित हैं, और प्रशासनिक अस्थिरता ने सुशासन को कमजोर किया है। भ्रष्टाचार के मामलों ने जनता का भरोसा डगमगाया है, और गैरसैंण राजधानी पर असमंजस अब भी कायम है।

रजत जयंती के अवसर पर हमें यह स्वीकार करना होगा कि विकास मॉडल ने पहाड़ी पहचान के साथ न्याय नहीं किया। मैदानी ढाँचागत सोच को पहाड़ों पर थोपने से “पहाड़ का पानी और जवानी” अब भी पहाड़ के काम नहीं आ रही। संसाधनों का लाभ पर्वतीय क्षेत्रों तक समान रूप से नहीं पहुँचा। स्थानीय नेतृत्व की भागीदारी सीमित रही, जिससे विकास योजनाएँ जनता की ज़रूरतों से दूर हो गईं। पलायन और सांस्कृतिक क्षरण इसका परिणाम हैं। अब पर्यावरण-प्रथम नीति अपनाने का समय है। गाँवों में रोजगार सृजन के लिए एडवांस टूरिज्म, जैविक खेती, कुटीर उद्योग और रिमोट वर्क सुविधाओं को बढ़ावा देना होगा।

भ्रष्टाचार मुक्त शासन के लिए पारदर्शिता और टेक्नोलॉजी आधारित प्रशासन जरूरी है। पंचायती राज संस्थाओं को असली वित्तीय शक्ति देनी होगी। गैरसैंण को सांस्कृतिक और प्रशासनिक राजधानी बनाने पर निर्णायक कदम उठाने होंगे। स्थानीय भाषाओं, लोक कलाओं और पारंपरिक जल-स्रोतों के पुनर्जीवन के लिए व्यापक कार्यक्रम शुरू करने होंगे। जनता की भागीदारी से वनीकरण और जल संरक्षण को आंदोलन का रूप देना होगा। रजत जयंती केवल जश्न का नहीं, आत्ममंथन और पुनर्संकल्प का अवसर है। पिछले 25 वर्षों में उत्तराखंड ने अपनी पहचान बनाई है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ हासिल करना बाकी है।

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