10 साल बाद क्या रितु भेद पाएंगी कोटद्वार का सियासी चक्रव्यूह?

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2012 में इसी सीट से चुनाव हार गए थे पूर्व सीएम भुवनचन्द खंडूरी

देहरादून (संवाददाता- अमित रतूड़ी): कहते हैं इतिहास अपने आप को दोहराता है। तारीख और साल भले ही बदल गए हों, पर सामने वही सुरेन्द्र सिंह नेगी है जिन्होंने

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पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खंडूरी को 2012 विधानसभा चुनाव में शिकस्त दी थी। भुवन चंद खंडूरी तो सुरेंद्र सिंह नेगी का बनाया चक्रव्यूह नहीं भेद पाए थे पर रितु खंडूरी के पास मौका है इस बार इस चक्रव्यूह को भेदकर अपने पिता की हार का बदला लेने का।

भाजपा ने रितु भूषण खंडूरी को उस दंगल से चुनाव मैदान में उतारा है जिसे साल 2012 में उनके पिता और भाजपा के दिग्गज नेताओं में से एक पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद खंडूरी भी नहीं फतह कर पाए थे। वह भी उस समय जब देश में अन्ना आंदोलन चल रहा था और उत्तराखंड में “खंडूरी है जरूरी” का नारा बुलंद हो रखा था।

कांग्रेस के कद्दावर नेता सुरेंद्र सिंह नेगी ने उस समय एक ऐसा चक्रव्यूह तैयार किया जिसे तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद खंडूरी भी नहीं भेद पाए।

उत्तराखंड बनने के बाद कोटद्वार अलग सीट बनी तो तब से यह चौंकाने वाले नतीजे ही देती आई है। 2002 में राज्य विधानसभा के पहले चुनाव में यह सीट भाजपा प्रत्याशी अनिल बलूनी का नामांकन निरस्त होने के चलते चर्चा में रही थी। हालांकि, भाजपा ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर उतरे पूर्व ब्लाक प्रमुख भुवनेश खरक्वाल के सिर पर हाथ रखा और पूरी ताकत झोंकी, मगर मतदाताओं ने जीत का सेहरा पहनाया कांग्रेस प्रत्याशी सुरेंद्र सिंह नेगी को। 2007 के चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी तत्कालीन मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी से मुकाबले के लिए भाजपा ने एकदम नए चेहरे दुगड्डा के तत्कालीन ब्लाक प्रमुख शैलेंद्र सिंह रावत पर दांव खेला। इस चुनाव में नेगी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थे, मगर परिणाम चौंकाने वाला था। कड़े मुकाबले में शैलेंद्र ने 900 मतों से जीत हासिल की और वे पहली मर्तबा विस में पहुंचे।

सबसे चौंकाने वाला परिणाम 2012 का रहा। ‘खण्डूरी है जरूरी’ के नारे साथ मैदान में उतरी भाजपा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी को यहां से प्रत्याशी बनाया। हालांकि, तब भाजपा को भितरघात समेत अन्य कारणों से भी जूझना पड़ा, लेकिन माना जा रहा था कि सिटिंग सीएम जीत हासिल कर लेंगे। नतीजा, आया तो न सिर्फ खंडूड़ी बल्कि पार्टीजन भी भौचक रह गए। खंडूड़ी को न सिर्फ हार झेलनी पड़ी, बल्कि इसी एक सीट को गंवाने से भाजपा सत्ता के करीब पहुंचकर भी विपक्ष में बैठने को मजबूर रही।

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