/ Sep 14, 2025
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HINDI DIWAS 2025: आज 14 सितंबर है और पूरे देश में में ‘हिंदी दिवस’ मनाया जा रहा है। हर साल में देश में बडे़ हर्षोल्लास के साथ ये दिन मनाया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि हिंदी दिवस आखिर 14 सितंबर को ही क्यों मनाया जाता है? किसी और तारीख को क्यों नहीं? इस एक सवाल के जवाब में भारत के निर्माण की, सैंकड़ों भाषाओं वाले देश को एक सूत्र में पिरोने की और आज़ादी के दीवानों के एक बड़े सपने की कहानी छिपी हुई है। यह कहानी सिर्फ एक तारीख की नहीं, बल्कि एक बड़े ऐतिहासिक फैसले और उस फैसले के पीछे काम कर रहे एक महान शख्स को दिए गए सम्मान की है।
इस कहानी को समझने के लिए हमें आज़ादी के उन शुरुआती दिनों में लौटना होगा, जब भारत अपनी किस्मत खुद लिखने की तैयारी कर रहा था। जब 1947 में भारत आज़ाद हुआ, तो अंग्रेज़ों से हमें सिर्फ ज़मीन का टुकड़ा नहीं मिला था, बल्कि सैंकड़ों चुनौतियाँ भी मिली थीं। देश का बंटवारा हो चुका था, अर्थव्यवस्था खराब हालत में थी और इन सबके बीच एक बहुत बड़ा सवाल ये था कि भारत की अपनी पहचान क्या होगी। हमारा अपना झंडा क्या होगा, हमारा राष्ट्रगान क्या होगा, और सबसे बढ़कर, हमारे देश की राजभाषा यानी सरकारी कामकाज की भाषा क्या होगी? यह सवाल जितना सीधा लगता है, उतना था नहीं।
भारत में सैंकड़ों भाषाएँ और हज़ारों बोलियाँ थीं। हर भाषा की अपनी खूबसूरती और अपना इतिहास था। ऐसे में किसी एक भाषा को चुनना बहुत ही मुश्किल और संवेदनशील काम था। आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही इस पर चर्चा शुरू हो गई थी। महात्मा गांधी का मानना था कि भारत की राष्ट्रभाषा ‘हिन्दुस्तानी’ होनी चाहिए, जो हिंदी और उर्दू का मिला-जुला रूप थी और जिसे आम लोग आसानी से बोलते और समझते थे। उनका मकसद एक ऐसी भाषा को बढ़ावा देना था जो उत्तर से लेकर दक्षिण तक सबको जोड़ सके।
लेकिन बंटवारे के बाद माहौल बदल गया। उर्दू का झुकाव पाकिस्तान की तरफ माना जाने लगा और हिंदी के समर्थक अपनी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने की पुरज़ोर वकालत करने लगे।यही बहस जब भारत का संविधान बनाने वाली संविधान सभा में पहुँची, तो यह और भी तीखी हो गई। संविधान सभा में पूरे भारत से चुनकर आए नेता बैठे थे, और वे सब अपने-अपने क्षेत्र की भावनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। एक तरफ पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंद दास और रघु वीर जैसे नेता थे, जो हिंदी को तत्काल भारत की एकमात्र राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में थे।
उनका तर्क था कि हिंदी देश के सबसे बड़े हिस्से में बोली और समझी जाती है और भारत की सांस्कृतिक पहचान इसी से जुड़ी है। तो दूसरी तरफ, दक्षिण भारत से आने वाले नेता थे, जैसे टी. टी. कृष्णामाचारी और जी. दुर्गाबाई। उन्हें डर था कि अगर हिंदी को जबरन उन पर थोप दिया गया, तो उनकी अपनी समृद्ध भाषाएँ और संस्कृति पीछे रह जाएँगी। टी. टी. कृष्णामाचारी ने तो सभा में यहाँ तक कह दिया था कि “अगर आपने हम पर हिंदी थोपी, तो शायद हमें भारत से अलग होने के बारे में सोचना पड़ेगा।”(HINDI DIWAS 2025)
यह सिर्फ एक धमकी नहीं थी, बल्कि दक्षिण भारत के लोगों का एक सच्चा डर था। पंडित जवाहरलाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे नेता इस स्थिति की गंभीरता को समझ रहे थे। वे एक ऐसा रास्ता निकालना चाहते थे जिससे देश की एकता भी बनी रहे और किसी को यह भी न लगे कि उनकी भाषा का अपमान हो रहा है। कई महीनों तक चली इन तीखी बहसों के बाद, एक समझौता तैयार किया गया, जिसे ‘मुंशी-आयंगर फॉर्मूला’ के नाम से जाना जाता है। इस फॉर्मूले ने एक बीच का रास्ता निकाला। इसके तहत यह तय हुआ कि हिंदी को भारत की ‘राष्ट्रभाषा’ नहीं, बल्कि ‘राजभाषा’ बनाया जाएगा।
राजभाषा का मतलब था सरकारी कामकाज की भाषा। साथ ही, यह भी फैसला हुआ कि देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी भारत संघ की राजभाषा होगी, लेकिन अंकों का स्वरूप अंतर्राष्ट्रीय होगा, यानी 1, 2, 3 वाला। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि अगले 15 सालों तक, यानी 1965 तक, सरकारी कामों में अंग्रेजी का इस्तेमाल भी पहले की तरह जारी रहेगा, ताकि जो राज्य हिंदी नहीं जानते, उन्हें इसे सीखने और अपनाने का पूरा समय मिल सके। इस समझदारी भरे समझौते ने एक बहुत बड़े भाषाई विवाद को टाल दिया और देश को टूटने से बचा लिया। इसी ऐतिहासिक समझौते पर संविधान सभा ने अपनी मुहर लगाई और वह तारीख थी 14 सितंबर 1949।
अब सवाल फिर वही आता है कि यह सब करने के लिए 14 सितंबर की तारीख ही क्यों चुनी गई? यह कोई अचानक लिया गया फैसला नहीं था। इस तारीख का चुनाव एक ख़ास व्यक्ति को सम्मान देने के लिए किया गया था, जिनका नाम था व्यौहार राजेंद्र सिंह। व्यौहार राजेंद्र सिंह मध्य प्रदेश के जबलपुर के रहने वाले एक महान साहित्यकार, विद्वान और कलाकार थे। वह हिंदी के बहुत बड़े समर्थक थे और उन्होंने हिंदी को भारत की राजभाषा बनाने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर दिया था। उन्होंने संविधान सभा के सदस्यों से लगातार मुलाकातें कीं, उनके सामने हिंदी के पक्ष में तर्क रखे और देश भर में इसके लिए माहौल बनाया।
वह काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त और सेठ गोविंद दास जैसे दिग्गजों के साथ इस मुहिम में कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे थे। जब महीनों की बहस के बाद संविधान सभा किसी नतीजे पर पहुँची, तो यह तय किया गया कि इस ऐतिहासिक फैसले की घोषणा एक ऐसे दिन की जाए जो इसके सबसे बड़े पैरोकारों में से एक के लिए भी यादगार हो। 14 सितंबर 1949 को व्यौहार राजेंद्र सिंह का 50वाँ जन्मदिन था। उनके निस्वार्थ योगदान और हिंदी भाषा के प्रति उनके गहरे प्रेम को सम्मान देने के लिए ही संविधान सभा ने इसी दिन हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाने का फैसला किया।(HINDI DIWAS 2025)
यह उस व्यक्ति के लिए एक अनमोल तोहफा था, जिसने अपना जीवन भाषा की सेवा में लगा दिया था। यह भी एक रोचक तथ्य है कि व्यौहार राजेंद्र सिंह एक बेहतरीन कलाकार भी थे और उन्होंने भारत के मूल संविधान के पन्नों को अपनी कला से सजाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। तो, 14 सितंबर 1949 को फैसला तो हो गया, लेकिन इस दिन को ‘हिंदी दिवस’ के रूप में मनाने की शुरुआत तुरंत नहीं हुई। कुछ साल बाद, जब यह महसूस किया गया कि हिंदी को सरकारी कामकाज में बढ़ावा देने के लिए एक विशेष दिन होना चाहिए, तब राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने सरकार से 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाने का अनुरोध किया।
भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और इसके बाद 14 सितंबर 1953 को पहली बार आधिकारिक तौर पर ‘हिंदी दिवस’ मनाया गया। उस दिन के बाद से यह सिलसिला हर साल चल रहा है। इस दिन को मनाने का मुख्य उद्देश्य यही था कि साल में एक दिन हम सब यह याद करें कि हिंदी हमारी राजभाषा है और हमें अपने सरकारी कामकाज में इसे प्राथमिकता देनी चाहिए। यह दिन इस बात का मूल्यांकन करने के लिए भी था कि हिंदी ने साल भर में कितनी प्रगति की है।(HINDI DIWAS 2025)
यहाँ एक और बात साफ कर देना ज़रूरी है, जिसमें अक्सर लोग गलती कर जाते हैं। 14 सितंबर को मनाया जाने वाला ‘राष्ट्रीय हिंदी दिवस’ और 10 जनवरी को मनाया जाने वाला ‘विश्व हिंदी दिवस’ दो अलग-अलग दिन हैं। राष्ट्रीय हिंदी दिवस, जैसा कि हमने जाना, भारत में हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिलने की याद में मनाया जाता है। वहीं, विश्व हिंदी दिवस पूरी दुनिया में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए मनाया जाता है। इसकी शुरुआत 1975 में नागपुर में हुए पहले विश्व हिंदी सम्मेलन की वर्षगांठ के तौर पर हुई थी। इसका मकसद वैश्विक मंच पर हिंदी को एक प्रतिष्ठित भाषा के रूप में स्थापित करना है।
आज, जब हम हिंदी दिवस मनाते हैं, तो हमें इसके पीछे के भाव को समझना चाहिए। यह दिन हमें याद दिलाता है कि हिंदी किसी दूसरी भारतीय भाषा से बड़ी या छोटी नहीं है, बल्कि यह एक संपर्क भाषा है, एक जोड़ने वाली कड़ी है, जिसे संविधान निर्माताओं ने देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए चुना था। हिंदी दिवस सिर्फ हिंदी भाषा का उत्सव नहीं है, बल्कि यह भारत की एकता, विविधता और आपसी सम्मान की भावना का भी उत्सव है। यह दिन हमें यह सोचने का अवसर देता है कि हम अपनी राजभाषा को सम्मान देते हुए अपनी मातृभाषाओं को कैसे सहेज कर रख सकते हैं, क्योंकि भारत की असली खूबसूरती उसकी सभी भाषाओं में बसती है।
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