/ Nov 09, 2025
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UTTARAKHAND WOMEN EMPOWERMENT: उत्तराखंड राज्य की स्थापना को 25 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इन वर्षों में राज्य ने विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और सशक्तिकरण की कई नई कहानियाँ लिखी हैं, लेकिन इस सफर की सबसे मजबूत कड़ी रही हैं उत्तराखंड की महिलाएं। जिन महिलाओं ने राज्य आंदोलन के दिनों में सड़क से लेकर प्रशासनिक मोर्चे तक लड़ाई लड़ी, वही आज उत्तराखंड की प्रगति की पहचान बन चुकी हैं। 25 साल बाद यह सवाल फिर से उठता है कि क्या जिन महिलाओं ने राज्य की नींव रखी, उन्हें अब वह समान अवसर और सम्मान मिला जिसकी वे हकदार थीं?

राज्य के गठन के समय यानी वर्ष 2000 में उत्तराखंड की कुल आबादी 84.89 लाख थी, जिसमें महिलाओं की संख्या 41.64 लाख थी। 2011 की जनगणना में यह संख्या 49.65 लाख हो गई। लिंगानुपात 963 प्रति 1000 पुरुष रहा, जो राष्ट्रीय औसत से बेहतर था। महिलाओं की साक्षरता दर 70.01 प्रतिशत और पुरुषों की 87.40 प्रतिशत रही, जिससे समग्र साक्षरता दर 78.82 प्रतिशत तक पहुँची। पर्यावरण से लेकर स्थानीय शासन तक, महिलाओं की सक्रियता राज्य की सामाजिक चेतना का आधार बनी रही। चिपको आंदोलन से लेकर आज तक, उत्तराखंड की महिलाओं ने संघर्ष और सशक्तिकरण दोनों को एक साथ जिया है।

शिक्षा वह पहला दरवाजा है जो हर सामाजिक बदलाव की शुरुआत करता है। 2001 में उत्तराखंड की महिला साक्षरता दर 59.63 प्रतिशत थी, जबकि पुरुषों की 83.28 प्रतिशत। यह अंतर उस दौर के समाज की सोच को दर्शाता था, जहाँ बेटों की शिक्षा प्राथमिकता थी। लेकिन 2011 की जनगणना ने तस्वीर बदली। महिला साक्षरता दर 70.01 प्रतिशत तक पहुँची और अब राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-21) के अनुसार यह 79.8 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है।

दिलचस्प बात यह है कि उच्च शिक्षा में महिलाएँ अब पुरुषों से आगे निकल चुकी हैं। अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण के अनुसार, उत्तराखंड में महिला जीईआर (Gross Enrolment Ratio) 49.7 प्रतिशत है, जबकि पुरुषों का 37.3 प्रतिशत। इसका अर्थ है कि अब राज्य की युवा महिलाएँ स्नातक और पेशेवर शिक्षा के क्षेत्र में निर्णायक उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। देहरादून, नैनीताल, श्रीनगर और अल्मोड़ा जैसे शहरों के कॉलेजों में लड़कियों की बढ़ती संख्या इसका प्रमाण है। हालाँकि पहाड़ी जिलों में शिक्षा तक पहुँच अब भी चुनौती बनी हुई है। पहाड़ की दूरस्थ छात्राएँ आज भी सीमित संसाधनों और सुरक्षा कारणों से उच्च शिक्षा से वंचित रह जाती हैं।

स्वास्थ्य का सीधा संबंध समाज की स्थिरता से होता है। उत्तराखंड के निर्माण के शुरुआती वर्षों में पहाड़ी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव एक बड़ी समस्या थी। NFHS-3 (2005-06) के अनुसार, उस समय केवल 33.7 प्रतिशत प्रसव ही अस्पतालों में होते थे। 25 वर्षों बाद, NFHS-5 (2019-21) में यह आँकड़ा 84.1 प्रतिशत तक पहुँच गया। NFHS-5 के मुताबिक, 15 से 49 वर्ष की 45.3 प्रतिशत महिलाएँ एनीमिया से पीड़ित हैं, और पाँच साल से कम उम्र के 27.2 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग की समस्या से जूझ रहे हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के बावजूद पोषण और जागरूकता का अभाव अब भी ग्रामीण इलाकों में गहराई से मौजूद है।

महिलाओं की आर्थिक भागीदारी में पिछले 25 वर्षों में बड़ा परिवर्तन आया है। स्वरोजगार योजनाओं, स्वयं सहायता समूहों और सरकारी प्रयासों से महिलाओं ने आज आत्मनिर्भरता की दिशा में ठोस कदम बढ़ाए हैं। NFHS-5 के अनुसार, 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की 50.6 प्रतिशत महिलाएँ किसी न किसी भुगतान वाले कार्य में शामिल हैं। यानी आधी महिला आबादी अब नकद अर्थव्यवस्था का सक्रिय हिस्सा है। हालाँकि, इन आँकड़ों के पीछे का सच यह भी है कि अधिकांश महिलाएँ अब भी असंगठित क्षेत्र में काम कर रही हैं। मैदानी जिलों में महिलाओं का स्वरोजगार और नौकरी का प्रतिशत 69 प्रतिशत तक है, जबकि पहाड़ी जिलों में यह आँकड़ा मात्र 5 प्रतिशत है।

उत्तराखंड की महिलाएँ राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में हमेशा अग्रणी रही हैं। पंचायती राज संस्थाओं में 50 प्रतिशत आरक्षण लागू होने के बाद हजारों महिलाएँ ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्य और जिला पंचायत अध्यक्ष के रूप में उभरी हैं। लेकिन विधानसभा में तस्वीर उलटी है। 2022 के चुनावों में 70 में से केवल 8 महिलाएँ विधायक चुनी गईं। राज्य की उच्च राजनीति में महिलाओं की भागीदारी अब भी सीमित है। लिंगानुपात की दृष्टि से उत्तराखंड राष्ट्रीय औसत से बेहतर रहा है, लेकिन बाल लिंगानुपात में गिरावट चिंताजनक है। 2001 में जहाँ यह 908 था, वहीं 2011 में घटकर 890 रह गया। NFHS-5 में सुधार के संकेत मिले हैं, लेकिन यह मुद्दा अभी भी सामाजिक सोच से जुड़ा हुआ है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं के खिलाफ अपराधों की संख्या 3342 रही, जो 2023 के मुकाबले 12 प्रतिशत कम है। हालांकि, महिलाओं के खिलाफ अपराध दर अब भी राष्ट्रीय औसत से ऊपर है। सबसे अधिक मामले अपहरण और घरेलू हिंसा के रहे। बलात्कार और दहेज हत्या जैसे अपराधों में कमी दर्ज हुई है, लेकिन दोषसिद्धि दर अब भी 40 प्रतिशत से कम है। हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर जैसे जिलों में यह संख्या अधिक है। साइबर अपराधों में भी 13 प्रतिशत की गिरावट आई है। राज्य सरकार ने सखी वन-स्टॉप सेंटर और मिशन शक्ति जैसी योजनाओं से महिला सुरक्षा को नई दिशा दी है।

उत्तराखंड की महिलाएँ राज्य की आत्मा रही हैं। 25 साल पहले जिन्होंने सड़कों पर संघर्ष किया, वही आज विकास की धुरी हैं। शिक्षा, रोजगार और राजनीति के क्षेत्र में उन्होंने उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं, लेकिन समान अवसर और सुरक्षा की दिशा में अभी लंबा सफर तय करना बाकी है। राज्य की प्रगति का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि वह अपनी सबसे मज़बूत नींव अपनी महिलाओं को कितना सशक्त बना पाता है। 25 साल का यह पड़ाव मंज़िल नहीं, बल्कि आत्ममंथन का आईना है, जो दिखाता है कि क्या हासिल हुआ और क्या अभी बाकी है।

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