क्या बागियों की बदौलत उत्तराखंड में हासिल होगी इस बार सत्ता की चाबी?
कैसी है ये ‘रेस’….कभी भाजपा, कभी कांग्रेस?
पंकज गैरोला, स्टेट हेड
उत्तराखंड 2022 के चुनावों में नामांकन की प्रक्रिया पूरी हो गई है। इस बीच सभी पार्टियों में प्रत्याशियों की लिस्ट जारी होने तक और उनके नामांकन होने तक ऐसा खेल देखने को मिला जिससे ये साफ लगा कि सत्ता और लालच के लिए ही इस उत्तराखंड का गठन हुआ है। बड़े-बड़े दावे करने वाली पार्टियों ने भी सत्ता के लालच में ऐसी राजनीति का चक्र चलाया जिसके बारे में उत्तराखंड राज्य के लिए शहीद हुए आंदोलनकारियों की आत्मा भी दुखी हो रही होगी कि इनकी सत्ता की भूख मिटाने के लिए हम शहीद हुए।
आज हर उत्तराखंडी के जबान पर है कि उत्तराखंड में इतने नेता बागी हो गये। बागियों के भरोसे सत्ता तक पहुंचने की कोशिश कर रही पार्टियां। ये बागी शब्द आया कहां से? ये बागी शब्द आया बगावत से। लेकिन यहां बगावत किस के लिए हुई। प्रदेश के लिए, प्रदेश के विकास के लिए, प्रदेश की भावनाओं के लिए। नहीं सिर्फ और सिर्फ अपने राजनैतिक फायदों के लिए। नाम लेकर बात करें तो हरक सिंह रावत भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आये किस के लिए? यशपाल आर्य अपने बेटे सहित कांग्रेस में वापस आए तो किसके हित में? किशोर उपाध्याय भी अचानक किसके लिए बागी हुए? सरिता आर्य भी बाताये? ये तो बड़े नाम हैं ऐसे ही नामों की बात करें तो दो दर्जन से अधिक नाम हैं जो सिर्फ अपनी सत्ता को भोगने के लिए ही तो बगावत कर चुके हैं। कोई एक प्रत्याशी ये बाताये कि राज्य हीत के लिए उन्होंने ये किया।
बगावत करने वाले क्या झंडे गाड़ देते हैं ?
ये सवाल उठाना भी लाजिमी है कि जिन्होंने इस चुनाव से पहले बगावत की उन्होंने क्या झंडे गाड़े दिये हैं। इस का जवाब आप को इससे मिल जायेगा। जब 2016 में कांग्रेस में बागवत कर 9 विधायक बागी होकर बीजेपी में आये तो फिर चुनाव के बाद वे 2017 में फिर सत्ता सुख भोगने लगे। उनमें से अधिकतर मंत्री भी बने, कुछ विधायक भी बने। उन्होंने बीजेपी में आने के बाद ऐसा क्या कर दिया कि उत्तराखंडी उनको याद करें? एक उपलब्धी तो बताये कोई? नहीं, किसी के नाम पर एक भी उपल्बधी नहीं मिलेगी। भले ही विभागीय योजानओं की लिस्ट जरूर बता देंगे। अब इस चुनाव में जो बागी हुए हैं, उन में से एक भी ये नहीं बता सकता कि जिस पार्टी में वे थे वे राज्य हीत में यह काम नहीं कर पा रही थी या फिर राज्य की अनदेखी हो रही थी। इसलिए वह बागवत पर उतर आये। जिन्होंने भाजपा छोड़ी उन्होंने चुनाव के समय में ही क्यों भाजपा छोड़ी या फिर जिनका कांग्रेस में मनभर गया उनका इस चुनावी मौसम में ही क्यों मनभर गया? पांच साल किस के लिए बैठे थे? साफ है न कि सिर्फ और सिर्फ सत्ता मोह के लिए यह सभी एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जा रहे हैं।
राजनैतिक पार्टियों चाहती हैं सिर्फ सत्ता हथियाना
बीजेपी, कांग्रेस या फिर अन्य राजनैतिक दलों की बात करें तो उन्होंने कई ऐसे अपने कार्यर्ताओं को किनारे कर दिया जो टिकट के हकदार थे, लेकिन इन्होंने दूसरे पार्टी के बागी को टिकट दे दिया, सिर्फ और सिर्फ सत्ता के लालच में। जिस कार्यकर्ता ने झंडे- डंडे बोके हों, दरी बिछाने से लेकर कुर्सी लगाने से लेकर पार्टी के लिए दिन रात एक किया हो उस पर भरोसा चुनाव के समय पर ही क्यों उठ गया? ये भी तो सवाल खड़े होते हैं। अब टिहरी सीट की बात करें तो किशोर उपाध्याय को बीजेपी ने क्यों टिकट दिया? जिस विधायक ने पांच साल वहां का प्रतिनिधित्व किया उसे क्यों किनारे कर दिया? उसके बाद कांग्रेस ने धन सिंह नेगी को ही क्यों टिकट दिया? कोई और कांग्रेसी नहीं था जो वहां अपना दम दिखा सकता था? पुरोला में तो बीजेपी ने दुर्गेश लाल को टिकट देने से चंद घंटे पहले पार्टी ज्वाइन करवाई। नैनीताल सीट से लेकर, रुद्रपुर, गंगोत्री, यमुनोत्री जैसी कई सीटें हैं जहां साफ लगता है कि ये राजनैतिक दल सत्ता ही चाहते हैं और कुछ नहीं। यही कारण हैं कि प्रदेश में बीजेपी से नाराज होकर 16 बागी निर्दलीय और कांग्रेस से नाराज 12 बागियों ने निर्दलीय पार्टी के खिलाफ मैदान में ताल ठोक रखी है। ऐसे में दोनों ही पार्टियों की कहीं न कहीं मुसीबतें जरूर बढ़ गई हैं।