पुरसाडी गाँव में सांस्कृतिक विरासत बगडवाल नृत्य का आयोजन किया गया।

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पहाड़ के अधिकतर गांवों में समय समय पर सांस्कृतिक और पारंपरिक कार्यक्रमो का आयोजन होता रहता है। आज भी उत्तराखंड में मान्यता है कि पहाड़ के गांवों के खेतों में अषाढ़ के महीने में रोपाई अर्थात रोपणी की जाती है। अषाढ़ के महीने की छः गते की रोपणी को लेकर आज भी पहाड़ के लोक में माना जाता है कि इस दिन रोपणी के सेरे यानी रोपाई के खेत में जीतू के प्राण नौ बैणी आछरियों ने हर लिए थे। जीतू और उसके बैलों की जोडी रोपाई के खेत में हमेशा के लिए धरती में समा जाता है।
जनपद के पुरसाडी गाँव में बगडवाल नृत्य का आयोजन किया
पहाड़ के सैकड़ों गाँवों में हर साल जीतू बगडवाल की याद में बगडवाल नृत्य का आयोजन किया जाता है। बगडवाल नृत्य पहाड़ की अनमोल सांस्कृतिक विरासत है। जिसमें सबसे ज्यादा आकर्षण का केन्द्र होता है बगडवाल की रोपणी इस दौरान रोपणी(धान रुपाई) को देखने अभूतपूर्व जनसैलाब उमड़ता है।
जीतू बगड्वाल के जीवन का 6 गते अषाढ़ की रोपाई का वह दिन अपने आप में विरह-वेदना की एक मार्मिक स्मृत्ति समाये हुए है।

गौरतलब है कि आज से एक हजार साल पूर्व तक प्रेम आख्यानों का युग था, जो 16वीं-17वीं सदी तक लोकजीवन में दखल देता रहा. हमारा पहाड़ भी इन प्रेम प्रसंगों से अछूता नहीं है बात चाहे राजुला-मालूशाही की हो या तैड़ी तिलोगा की, इन सभी प्रेम गाथाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज की लेकिन, सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली ‘जीतू बगड्वाल’ की प्रेम गाथा को, जो आज भी लोक में जीवंत है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार गढ़वाल रियासत की गमरी पट्टी के बगोड़ी गांव पर जीतू का आधिपत्य था अपनी तांबे की खानों के साथ उसका कारोबार तिब्बत तक फैला हुआ था एक बार जीतू अपनी बहिन सोबनी को लेने उसके ससुराल रैथल पहुंचता है बहाना अपनी प्रेयसी भरणा से मिलने का भी है जो सोबनी की ननद है। दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने हैं जीतू बांसुरी भी बहुत सुंदर बजाता है। एक दिन वह रैथल के जंगल में जाकर बांसुरी बजाने लगा. बांसुरी की मधुर लहरियों पर आछरियां (परियां) खिंची चली आई. वह जीतू को अपने साथ ले जाना (प्राण हरना) चाहती हैं. तब जीतू उन्हें वचन देता है कि वह अपनी इच्छानुसार उनके साथ चलेगा. आखिरकार वह दिन भी आता है, जब जीतू को परियों के साथ जाना पड़ा।
जीतू के जाने के बाद उसके परिवार पर आफतों का पहाड़ टूट पड़ा. जीतू के भाई की हत्या हो जाती है. तब वह अदृश्य रूप में परिवार की मदद करता है. राजा जीतू की अदृश्य शक्ति को भांपकर ऐलान करता है कि आज से जीतू को पूरे गढ़वाल में देवता के रूप में पूजा जाएगा। तब से लेकर आज तक जीतू की याद में पहाड़ के गाँवों में जीतू बगडवाल का मंचन किया जाता है. जो कि पहाड़ की अनमोल सांस्कृतिक विरासत है. समय के साथ अब बहुत सीमित गाँवों में ही इसका मंचन किया जा रहा है।